Monday, 9 January 2023

 

डार् से बिछुड़ी

 

कृष्णा सोबती भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर हिंदी की विश्वसनीय उपस्थिति के साथ  अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी  रचनात्मकता के लिए जानी जाती  हैं ,कम लिखने को ही अपना परिचय मानने वाली कृष्णा जी की जादुई कलम से निकला मर्मस्पर्शी उपन्यास है.......... डार् से बिछुड़ी

इस कहानी मैं एक पाशो की ओढ़नी में जाने कितनी ही पाशो आपको नजर आएँगी।

.अपनी दर्द भरी आवाज से जब वह कहती है

जीएं ,जागें ,सब जीएं जागें।

तो जीने की खवाहिश और पुख्ता हो जाती है।

कहानी में-  

पाशो जब  किशोरी ही थी, तब  उसकी माँ विधवा होकर भी शेखों की हवेली जा चढ़ी । ऐसे में माँ ही उसके मामुओं के लिए 'कुलबोरनी' नहीं हो गई, वह भी सन्देहास्पद हो उठी । नानी ने भी एक दिन कहा ही था-' 'सँभलकर री, एक बार का थिरका पाँव जिन्दगानी धूल में मिला देगा !' ' लेकिन थिरकने-जैसा तो पाशो की जिन्दगी में कुछ था ही नहीं, सिवा इसके कि वह माँ की एक झलक देखने को छटपटाती और इसी के चलते शेखों की हवेलियों की ओर निकल जाती । यही जुर्म था उसका । माँ ही जब विधर्मी बैरियों के घर जा बैठी तो बेटी का क्या भरोसा! जहर दे देना चाहिए कुलच्छनी को, या फिर दरिया में डुबो देना चाहिए!. ..ऐसे ही खतरे को भाँपकर एक रात माँ के चल में जा छुपी पाशो, लेकिन शीघ्र ही उसका वह शारण्य भी छूट गया, और फिर तो अपनी डार से बिछुड़ी एक लड़की के लिए हर ठौर-ठिकाना त्रासद ही बना रहा ।

उपन्यास में स्त्री जीवन के समक्ष जन्म से ही मौजूद खतरों और उसकी विडंबनाओं को रेखांकित किया गया है इस कहानी का एक ऐतिहासिक परिपेक्ष भी है और वह है सिख और अंग्रेज सेनाओं के बीच 1849 में हुआ अंतिम घमासान,पाशो  उसमें शामिल नहीं थी लेकिन वह लड़ाई उसकी जिंदगी में अनिवार्य रूप से शामिल थी। एक लड़ाई थी जो अपने अंदर थी और एक लड़ाई थी जो वह  बाहर लड़ती थी और यही वजह है कि पाशो आज भी जिंदा है अपनी धरती अपनी संस्कृति दोनों का प्रतिरूप बनकर ।

किताब पढ़कर कृष्णा जी के पास जाकर पाशो का हाल पूछने का दिल करता है पर पाशो कोई एक तो हो।

जाने कितनी ही पाशो  युद्ध की वेदी पर चढ़ गयी। न ठौर मिला न ठिकाना




 

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