Sunday, 9 July 2023







वन में भटक रही सीता के अनुभूति कोष में क्या नहीं है।आरोहण-अवरोहण,सुख-दुख, उन्मेष -निमेष सब कुछ।

धरा की पुत्री,धरा से ही गहरी मित्रता।

अपने परम प्रिय स्वामी या कहुं सर्वस्व के लिए सब कुछ त्याग, सब कुछ खोने या सब पा लेने की राह पर जब चल पढते हैं, तो मनके भावों को उतार चढ़ावों को ,धूप छांव को, प्रेम विरोधाभास को संजोकर लिखी जाती है ऐसी पुस्तकें....

अनामिका जी का लिखा सीता के निकट पहुंचा देगा आपको। आप भी वन -वन यात्रा करेंगे ।जंगल की बरसात से आपके मन पर भी प्रेम और विश्वास के गहरे छींटे पढ़ेंगे।

 वृद्ध मातंगी की सेवा में रत  सीता को देखकर मुझे उन सभी स्त्रियों की बरबस याद आ गई जो बिना नाम पाए आजीवन घर के बुजुर्गों को समर्पित होती हैं,पर कभी सीता नहीं कहलाई जाती। पुस्तक पढ़कर लगा जैसे मैं अनेकों महिलाओं का जीवन दर्पण देख रही हूं।अपने प्रिय को मनाती उन्हीं को समर्पित, प्रेम से भरपूर कष्ट से मित्रता करती स्त्रियां....

 वह सर्वसिद्ध चमत्कारी सीता मां थी ,जो तिनके की ओट में सर्वार्थसिद्धि का रचा महानाट्य सिद्ध कर गई।। जैसे एक सामान्य स्त्री चुप्पी की ओट में सर्वार्थ कार्य सिद्ध कर देती है।

अनामिका जी के माता-पिता बेहद शिक्षित और रामायण को ह्रदय में संजोए रखते थे, तभी बाल मन से ही सीता का जन्म अनामिका के मन में हुआ है।

पिता ने जहां कलम छोड़ी है वहीं उन्होंने उसी सारगर्भिता और प्रेम से उसे पकड़ लिया है।

और सीता के प्रेम में मगन हो एक ऐसा महाकाव्य रच डाला जो वर्षों तक हम सबको मगन रखेगा।

उपन्यास को ही आधुनिक जीवन का महाकाव्य बनाकर इस पुस्तक को अनेक खंडों में बांटा गया है।


खंड 1 गुप्त पत्राचार


खंड-2 सीतायण- कुछ क्षण चित्र

1. बालकांड

2. अयोध्या कांड

3. अरण्यकांड

4. सुंदरकांड

5. लंका कांड

6. निष्कृति खंड


खंड 3- उत्तरायण


पुस्तक में हम हर उस स्त्री से मिल रहे हैं, जो अपने मन के भावों में तैरती उतरती रहती है।

मेरे मन को भाई है सीता की  शूर्पणखा को लिखी चिट्ठी।

सच ही तो है ,स्त्री ही अगर स्त्री  को नहीं समझेगी तो ...कौन समझेगा ........


प्यार और आभार के साथ

दिपाली






Sunday, 12 February 2023

 


गोली

 यह कहानी है एक गोली की। आपमें से बहुत से लोग इस शब्द से परिचित नहीं होंगे। पर राजा महाराजों की आवश्यकता पूर्ती का यह वह साधन है जिसने लगभग ६०,००० की जनसँख्या का रूप ले लिया था।

कहानी की नायिका चंपा भी एक गोली की पुत्री है और इसलिए जन्म जात गोली है।

गोले -गोली जनसँख्या का वह टुकड़ा है जिसे अपने होने का आभास भी होने नहीं दिया जाता।

दान दहेज़ में प्रथा दर प्रथा इधर से उधर जीवन बीतता है। कभी राजा की सेवा में तो कभी रानी की जी हुजूरी मे।

कहानी के दो अन्य मुख्या किरदारों में "चंपा " के दो नायक हैं ,एक तो अन्नदाता महाराज हैं ,जिनकी वह गोली से कहीं अधिक स्वामिनी है। कहानी का दूसरा नायक है किसुन  जिसके बारे में 4 पंक्ति लिखकर बताना उसका अपमान करना है। क्यूंकि देवताओं का क्या  वर्णन और ऐसा में नहीं कहती, कहते हैं स्वयं आचार्य चतुरसेन।

इस कहानी को संक्षिप्त में कहूँ तो गोलियों की दासता और मजबूरी की एक सच्ची घटना पर आधारित उपन्यास कह सकती हूँ ,परन्तु इसे पूरा पढ़े बिना इसके साथ न्याय नहीं हो सकता।

चंपा जब रुआँसे से मन से कहती है

‘मैं जन्मजात अभागिनी हूँ। स्त्री जाति का कलंक हूँ। परन्तु मैं निर्दोष हूँ, निष्पाप हूँ। मेरा दुर्भाग्य मेरा अपना नहीं है, मेरी जाति का है, जाति-परम्परा का है; हम पैदा ही इसलिए होते हैं कि कलंकित जीवन व्यतीत करें। जैसे मैं हूँ ऐसी ही मेरी माँ थी, परदादी थी, उनकी दादियाँ-परदादियाँ थीं। मैंने जन्म से ही राजसुख भोगा, राजमहल में पलकर मैं बड़ी हुई, रानी की भाँति मैंने अपना यौवन का शृंगार किया। रंगमहल में मेरा ही अदब चलता था। राजा दिन रात मुझे निहारता, कभी चंदा कहता, कभी चाँदनी। राजा मेरे चरण चूमता, मेरे माथे पर तनिक-सा बल पड़ते ही वह बदहवास हो जाता था। कलमुँहे विधाता ने मुझे जो यह जला रूप दिया, राजा उस रूप का दीवाना था, प्रेमी पतंगा था। एक ओर उसका इतना बड़ा राज-पाट और दूसरी ओर वह स्वयं भी मेरे चरण की इस कनी अंगुली के नाखून पर न्यौछावर था।’’

यह पुस्तक और इसकी संपूर्ण कहानी पड़ते वक़्त भय ,रोमांच  और डर से कितनी ही बार मेरा हृदय काँप उठा। अपने साधारण से जीवन पर कई बार पछतावे का एहसास हर मनुष्य को होता है परन्तु इस पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे संतुष्टि होने लगी।

आचार्य चतुरसेन  लेखक होने के साथ चिकित्सक भी थे और इसी वजह से राजा रानियों के गलियारे की टोह लेने में उनसे चूक नहीं हुई। राज घरानो के जीवन की विचित्रता बतलाता यह उपन्यास आपको कड़वे सच के गहरे अंधकार में ले जायेगा।

1958 में पहली बार प्रकाशित आचार्य चतुरसेन का यह अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास राजस्थान के रजवाड़ों में प्रचलित गोली प्रथा पर आधारित है। चंपा नामक गोली का पूरा जीवन राजा की वासना को पूरा करने में निकल जाता है और वह मन-ही-मन अपने पति के प्रेम-पार्श्व को तरसती रहती है। लेखक का कहना है, ‘‘मेरी इस चंपा को और उसके श्रृंगार के देवता किसुन को आप कभी भूलेंगे नहीं। चंपा के दर्द की एक-एक टीस आप एक बहुमूल्य रत्न की भाँति अपने हृदय में संजोकर रखेंगे।’’

 

Link to read the book online

https://www.hindikahani.hindi-kavita.com/Goli-Acharya-Chatursen-Shastri.pdf

 

With Love

Dipali

 


Monday, 9 January 2023

 

डार् से बिछुड़ी

 

कृष्णा सोबती भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर हिंदी की विश्वसनीय उपस्थिति के साथ  अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी  रचनात्मकता के लिए जानी जाती  हैं ,कम लिखने को ही अपना परिचय मानने वाली कृष्णा जी की जादुई कलम से निकला मर्मस्पर्शी उपन्यास है.......... डार् से बिछुड़ी

इस कहानी मैं एक पाशो की ओढ़नी में जाने कितनी ही पाशो आपको नजर आएँगी।

.अपनी दर्द भरी आवाज से जब वह कहती है

जीएं ,जागें ,सब जीएं जागें।

तो जीने की खवाहिश और पुख्ता हो जाती है।

कहानी में-  

पाशो जब  किशोरी ही थी, तब  उसकी माँ विधवा होकर भी शेखों की हवेली जा चढ़ी । ऐसे में माँ ही उसके मामुओं के लिए 'कुलबोरनी' नहीं हो गई, वह भी सन्देहास्पद हो उठी । नानी ने भी एक दिन कहा ही था-' 'सँभलकर री, एक बार का थिरका पाँव जिन्दगानी धूल में मिला देगा !' ' लेकिन थिरकने-जैसा तो पाशो की जिन्दगी में कुछ था ही नहीं, सिवा इसके कि वह माँ की एक झलक देखने को छटपटाती और इसी के चलते शेखों की हवेलियों की ओर निकल जाती । यही जुर्म था उसका । माँ ही जब विधर्मी बैरियों के घर जा बैठी तो बेटी का क्या भरोसा! जहर दे देना चाहिए कुलच्छनी को, या फिर दरिया में डुबो देना चाहिए!. ..ऐसे ही खतरे को भाँपकर एक रात माँ के चल में जा छुपी पाशो, लेकिन शीघ्र ही उसका वह शारण्य भी छूट गया, और फिर तो अपनी डार से बिछुड़ी एक लड़की के लिए हर ठौर-ठिकाना त्रासद ही बना रहा ।

उपन्यास में स्त्री जीवन के समक्ष जन्म से ही मौजूद खतरों और उसकी विडंबनाओं को रेखांकित किया गया है इस कहानी का एक ऐतिहासिक परिपेक्ष भी है और वह है सिख और अंग्रेज सेनाओं के बीच 1849 में हुआ अंतिम घमासान,पाशो  उसमें शामिल नहीं थी लेकिन वह लड़ाई उसकी जिंदगी में अनिवार्य रूप से शामिल थी। एक लड़ाई थी जो अपने अंदर थी और एक लड़ाई थी जो वह  बाहर लड़ती थी और यही वजह है कि पाशो आज भी जिंदा है अपनी धरती अपनी संस्कृति दोनों का प्रतिरूप बनकर ।

किताब पढ़कर कृष्णा जी के पास जाकर पाशो का हाल पूछने का दिल करता है पर पाशो कोई एक तो हो।

जाने कितनी ही पाशो  युद्ध की वेदी पर चढ़ गयी। न ठौर मिला न ठिकाना